गुरुवार, 25 सितंबर 2014


जरा हट के .**********
जो तमाम उम्र जमाते रहे ;;; छाती पर मेरी पत्थर ;; वही लोग पूछ रहे मुझसे ;;तुम इतनी सख्त कैसे हो गयी ! जोधपुर , राजस्थान के एक छोटे से क़स्बा ऊसियाँ से उभरकर रास्ट्रीय और अंतररास्ट्रीय स्तर पर दस्तक देनेवाली लेखिका श्रीमती आशा पाण्डेय जी की दूसरी काव्य पुस्तक '' एक कोशिश , रौशनी की ओर " आज कल चर्चा में है ! अपनी बेबाक अभिव्यक्ति और विषय के प्रति गहरी जानकारी रखने वाली लेखिका ने लग भाग सौ काव्य रचनाओं के माध्यम से इस गुलदस्तों को बखूबी सजाया है ! हबीब कैफ़ी , डॉ सावित्री डागा ,सत्येन व्यास , नन्द किशोर शर्मा , चुरू के कलक्टर कृष्ण कान्त पाठक जैसे विद्वानों ने पुस्तक के प्रारंभ में अपनी बेहतरीन राय रखी है ! माँ तुम , भावो का पानी , अनुराग , औरत , चल साथी मेरे साथ चल , मेरी बेटियाँ , आँख में नमी ना आये , आ जाओ एक बार जैसी कवितायेँ भावनात्मक स्तर पर आधुनिक समस्याओं से साक्छात्कार कराती है ! दिलकश और काबिले तारीफ अदा है आशा जी के अभिव्यक्ति की !! भाई आदर्श तिवारी जी को धन्यवाद जिन्होंने इतनी बेहतरीन पुस्तक दे कर मुझे साहित्यिक रूप से समृद्ध बनाया ! --- डॉ रविकांत दुबे !

एक कोशिश रोशनी की ओर

आशा पाण्डेय ओझा की ‘एक कोशिश रौशनी की ओर’
एक रचनाकार का ह्रदय बहुत संवेदनशील होता है. जीवन की अनुभूतियाँ उसके मन पर अंकित होती रहती हैं और रचना करते समय यही अनुभूतियाँ उभरकर आकार लेती हैं. आशा पाण्डेय ओझा की पुस्तक ‘एक कोशिश रोशनी की ओर’ ऐसी ही अनुभूतियों का संकलन है.
इस संकलन में शामिल रचनाओं की भाषा सरल है. इनमें क्लिष्ट शब्दों का मोह नहीं दिखता. सीधे, सपाट लहजे में, बोलचाल की भाषा में कही गयी बात सीधे पाठक तक पहुँचती है. यही कारण है कि जब वे इश्वर से प्रार्थना करती हैं तो उनकी सरलता सहज ही शब्द पा जाती है-

‘आत्मा रहे मेरी गीता सी पावन
काया मेरी वेद कुरान हो
सादगी रहे मेरे जीवन का हिस्सा
मुझको जरा न अभिमान हो’

वहीं माँ के प्रति उनकी श्रद्धा कुछ इस तरह से व्यक्त होती है-

‘माँ तुम ममता का मूर्त रूप
तुम सतरंगी स्नेह-आँचल’

इस संकलन में शामिल रचनाओं को विधा के नाम पर वर्गीकृत करना कठिन है. भाव और विचार को प्रमुखता देने में शिल्प का मोह कहीं पीछे छूट गया है. बिम्बों या किसी लाग-लपेट के बिना उन्होंने अपनी बात सीधे रखी है. अपने जीवन, समाज और आस-पास के परिदृश्य से एकत्रित अनुभूतियों को कवियत्री इन रचनाओं में पूरी तरह जीती हैं.
समाज में व्याप्त अव्यवस्था और संवेदनहीनता से आहत कवियत्री का मन रह-रहकर सामाजिक कुरीतियों पर चोट करता दिखता है.

‘वो नंगे भूखे जिस्म वो पथराई आँखें
पूछ रहे हैं मुझसे ये दुनिया किसने बनायी?’

संवेदनहीनता पर वो इतनी विचलित हैं कि बरबस कह उठती हैं-

‘ये सुलगते मंज़र ये संवेदनाओं की ख़ामोशी
वाकई मैं हैरान हूँ क्यूंकि वक्त हैरानी का है’

और उनकी ये हैरानी इन्सान की हैरानी बनकर अव्यवस्था और मूल्यों के पतन की परतें खोलती उनकी रचनाओं में मुखरित हुई है.

‘हर इंसान है आज अहिल्या
है राम कहाँ जो उद्धार करे’

आमो-खास के अंतर पर प्रश्न-चिन्ह लगाती उनकी रचनाओं में सर्वहारा वर्ग के मन का प्रश्न बहुत ही प्रमुखता से जगह पाता है.

'कुदरत नहीं करती जब कोई अंतर
फिर क्यों हम-तुम एक समान नहीं'

सामाजिक विद्रूपताओं के प्रति उनकी खिन्नता बहुत स्पष्टता से व्यक्त होती है-

‘वे सर पर मैला ढोते हैं
हम मन में मैला ढोते हैं’

आदमियत में आती गिरावट बहुत बारीकी से इनकी रचना में उभरकर आती है. एक बानगी देखिये-

‘सागर थे जो सूख गए
बचे रेत के टीले लोग’

वर्तमान परिदृश्य की भयावता इन शब्दों में व्यक्त हुई है-

‘देख लिया जो शीशा इक दिन अनजाने में
खुद से ही डर जायेगा आदमी’

आम आदमी या सर्वहारा का दर्द उनके मन में इस कदर रचा-बसा है कि उसकी कराह उनकी लेखनी में स्पष्ट सुनाई देती है.

‘रातों को जब मेरे घर में रौशनी जगमगाने लगती है
जाने क्यों अँधेरे में डूबी वो बस्ती याद आने लगती है’

समाजवाद की अवधारणा कितने सही शब्द पायी है यहाँ-

‘एक ऐसा स्वर्णिम सबेरा होगा
फिर न कहीं कोई अँधेरा होगा’

उनकी कल्पनों में एक ऐसी दुनिया है जहाँ कोई विवाद न हो, जहाँ सिर्फ अमन और चैन हो-

‘मिटा दो युद्ध विध्वंस तो बड़ा उपकार हो जाये
इस धरती से ख़त्म सरहदों की दीवार हो जाये
मिट जाये जात-पात, दुनिया एक परिवार हो जाये
सचमुच जन्नत कहीं है, तो जमीं पे साकार हो जाये’

इनकी रचनाओं में प्रकृति चित्रण ऐसे अनोखे सरस अंदाज़ में है कि मन प्राकृतिक सौन्दर्य से गदगद हो जाता है.

‘कस्तूरी हुई गुलाब की सांसें
केवड़ा, पलाश करे श्रंगार
छोटे ही गिर जाये पात लजीले
इठलाती-मदमाती सी बयार’

पुस्तक की प्रूफ रीडिंग उच्च कोटि की है. अच्छी प्रिंटिंग और आकर्षक प्रस्तुतीकरण के लिए प्रकाशक बधाई के पात्र हैं.

पुस्तक का नाम- एक कोशिश रौशनी की ओर
कवियत्री- श्रीमती आशा पाण्डेय ओझा
प्रकाशक- अम्बुतोष प्रकाशन
मूल्य- १२० रुपये

ब्रिजेश "नीरज "
http://voice-brijesh.blogspot.in/2013/10/blog-post_6.html

बुधवार, 24 सितंबर 2014

एक कोशिश रोशनी की ओर

मुझे आशा पांडे "ओझा" जी द्वारा हाल ही में दो पुस्तकें प्राप्त हुई .. एक 'त्रिसुगंधि " नाम से और दुसरी "एक कोशिश रोशनी की ओर" | त्रिसुगंधि में एक तरह का सम्मिलित काव्य संकलन है जिसमे कई रचनाकारों की रचनाएं है... गागर में सागर की तरह .... और एक कोशिश रौशनी की ओर में सिर्फ आशा जी की अपनी रचनाएं है... यहाँ पर आशा पाण्डेय "ओझा" जी की पुस्तक 'एक कोशिश रौशनी की ओर' के बारे में मैंने जो मैंने पाया वह साझा कर रही हूँ
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“एक कोशिश रौशनी की ओर” श्रीमती आशा पाण्डेय ओझा का कविता संग्रह. इसका कवर पेज जितना रोचक और सकारात्मक है उससे अधिक पुस्तक के भीतर की कवितायें| लगभग सौ पृष्ठों की यह पुस्तक में, जिंदगी की बानगी प्रस्तुत करती, आम जीवन के इर्द गिर्द जीवन के विभिन्न पहलुवों को टटोलती रचनाएं, बहुत कुछ कह जाती है, ये कवितायेँ व्यक्तिगत अनुभवों के साथ समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन भी करती है और समाज की बदहाल व्यवस्था पर चिंतित भी है और उन पर चोट करती है और बदलाव की मांग करती है – वो नंगे भूखे जिस्म वो पथराई आँखें/ पूछ रहे हैं मुझसे ये दुनियां किसने बनाई ....
वह अशिक्षा पर वार करती है और चाहती हैं कि साक्षर हों सब – गली गली ढूंढ कर निरक्षर/ मिल कर हम तुम परस्पर/ बनाएँ हर निरक्षर को साक्षर/ जला कर चेतना का इक दीया/ दिखाएँ राह के कंटक प्रस्तर .........
असमानता और छुआछूत पर वह लिखती है – वे सर पर मैला ढोते हैं/ हम मन में मैला ढोते है/ वो हमारा मैला ढोते हैं/ हम उनके प्रति मैला ढोते हैं .... वैसे ही आधुनिक समाज में चली आ रही कुप्रथाओं में कन्या भ्रूण ह्त्या जैसे प्रवृति पर चोट करती उनकी कलम लिखती है--- क़त्ल कन्याओं का यूं न छुप छुप के कीजिये/ जाने अनजाने खुद को ही सजा न दीजिए/ .....
इसी तरह जीवन दर्शन पर गहरे भाव रखती एक छोटी से क्षणिका
न ही बहुत लंबी उम्र
न ही युग युगान्तर
मैं जीवन जीना चाहती हूँ
छोटा किन्तु अर्थ भर|....
आज जिस तरह मानवीय भावनाओं का ह्रास होता जा रहा है उस पर चोट करती अनेक रचनाओं में से एक रचना देखिये
बारूदों की तल्ख़ धूप मैं/ खूं पसीने से गीले लोग/ बिन जुर्म जो काटे सजा/ वो सलीब की कीलें लोग/ कुछ पड़े हैं लाशों जैसे/ कुछ है गिद्ध चीले लोग/ सागर थे जो सूख गए/ बचे रेत के टीले लोग ....... ऐसे ही वे गाँव का आदमी मैं कहती है – था कितना सीधा सादा भोला भाला गाँव का आदमी/ बन गया कैसा अजब का गोला गाला गाँव का आदमी/ जहरीले शहरी साँपों के संगत में पड़ ये पगला/ ऐसा बदला बन गया संपोला गाँव का आदमी
उनकी कविता देश के नौजवानों का आह्वाहन करती है --- नवपीढ़ी तुम देश का संबल बनों/ माहोल कीचड़ का है तो क्या तुम कमल बनों ...............
यहाँ स्त्री विमर्श भी मिलता है – एक स्त्री के जीवन की त्रासदी कन्या भ्रूण हत्या से ले कर विधवा औरत का दर्द, बहन का अपने भाई की तरह अपने जीवन के सपनो को साकार करने के लिए ऊँची उड़ान की ख्वाहिश दिखती है, वह यह भी कहती हैं आखिर कब तक – चाह में अपने अस्तित्व की/ सीता से ले कर/ तस्लीमा नसरीम तक/ होना पड़ा भूमिगत/ आखिर क्यों?/ आखिर कब तक?
उनकी कविताये शुद्ध हिंदी में है तो उर्दू के प्रयोग के साथ बानी गजलों और नज्मों की नफासत और रवानगी देखते बनती है .. कुल मिला कर इन रचनाओं में जहां व्यक्तिगत कोमल भावनाएं भी हैं वही उनका संवेदनशील मन बड़ी बेबाकी से समाज की कुरीतियों पर प्रहार करता है ... बड़े सरल और सहज ढंग से अपनी भावनाओं को संप्रेषित करती हुई ये रचनाएं बरबस पाठकों को अपनी ओर खींचती है ... मैं श्रीमती आशापांडे जी से उम्मीद करती हूँ कि आगे भी वो अपने रचना संसार से अनूठी कृतियाँ समाज को दें .. शुभकामनाओं सहित – डॉ नूतन गैरोला