मुझे आशा पांडे "ओझा" जी द्वारा हाल ही में दो पुस्तकें प्राप्त हुई .. एक 'त्रिसुगंधि " नाम से और दुसरी "एक कोशिश रोशनी की ओर" | त्रिसुगंधि में एक तरह का सम्मिलित काव्य संकलन है जिसमे कई रचनाकारों की रचनाएं है... गागर में सागर की तरह .... और एक कोशिश रौशनी की ओर में सिर्फ आशा जी की अपनी रचनाएं है... यहाँ पर आशा पाण्डेय "ओझा" जी की पुस्तक 'एक कोशिश रौशनी की ओर' के बारे में मैंने जो मैंने पाया वह साझा कर रही हूँ
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“एक कोशिश रौशनी की ओर” श्रीमती आशा पाण्डेय ओझा का कविता संग्रह. इसका कवर पेज जितना रोचक और सकारात्मक है उससे अधिक पुस्तक के भीतर की कवितायें| लगभग सौ पृष्ठों की यह पुस्तक में, जिंदगी की बानगी प्रस्तुत करती, आम जीवन के इर्द गिर्द जीवन के विभिन्न पहलुवों को टटोलती रचनाएं, बहुत कुछ कह जाती है, ये कवितायेँ व्यक्तिगत अनुभवों के साथ समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन भी करती है और समाज की बदहाल व्यवस्था पर चिंतित भी है और उन पर चोट करती है और बदलाव की मांग करती है – वो नंगे भूखे जिस्म वो पथराई आँखें/ पूछ रहे हैं मुझसे ये दुनियां किसने बनाई ....
वह अशिक्षा पर वार करती है और चाहती हैं कि साक्षर हों सब – गली गली ढूंढ कर निरक्षर/ मिल कर हम तुम परस्पर/ बनाएँ हर निरक्षर को साक्षर/ जला कर चेतना का इक दीया/ दिखाएँ राह के कंटक प्रस्तर .........
असमानता और छुआछूत पर वह लिखती है – वे सर पर मैला ढोते हैं/ हम मन में मैला ढोते है/ वो हमारा मैला ढोते हैं/ हम उनके प्रति मैला ढोते हैं .... वैसे ही आधुनिक समाज में चली आ रही कुप्रथाओं में कन्या भ्रूण ह्त्या जैसे प्रवृति पर चोट करती उनकी कलम लिखती है--- क़त्ल कन्याओं का यूं न छुप छुप के कीजिये/ जाने अनजाने खुद को ही सजा न दीजिए/ .....
इसी तरह जीवन दर्शन पर गहरे भाव रखती एक छोटी से क्षणिका
न ही बहुत लंबी उम्र
न ही युग युगान्तर
मैं जीवन जीना चाहती हूँ
छोटा किन्तु अर्थ भर|....
आज जिस तरह मानवीय भावनाओं का ह्रास होता जा रहा है उस पर चोट करती अनेक रचनाओं में से एक रचना देखिये
बारूदों की तल्ख़ धूप मैं/ खूं पसीने से गीले लोग/ बिन जुर्म जो काटे सजा/ वो सलीब की कीलें लोग/ कुछ पड़े हैं लाशों जैसे/ कुछ है गिद्ध चीले लोग/ सागर थे जो सूख गए/ बचे रेत के टीले लोग ....... ऐसे ही वे गाँव का आदमी मैं कहती है – था कितना सीधा सादा भोला भाला गाँव का आदमी/ बन गया कैसा अजब का गोला गाला गाँव का आदमी/ जहरीले शहरी साँपों के संगत में पड़ ये पगला/ ऐसा बदला बन गया संपोला गाँव का आदमी
उनकी कविता देश के नौजवानों का आह्वाहन करती है --- नवपीढ़ी तुम देश का संबल बनों/ माहोल कीचड़ का है तो क्या तुम कमल बनों ...............
यहाँ स्त्री विमर्श भी मिलता है – एक स्त्री के जीवन की त्रासदी कन्या भ्रूण हत्या से ले कर विधवा औरत का दर्द, बहन का अपने भाई की तरह अपने जीवन के सपनो को साकार करने के लिए ऊँची उड़ान की ख्वाहिश दिखती है, वह यह भी कहती हैं आखिर कब तक – चाह में अपने अस्तित्व की/ सीता से ले कर/ तस्लीमा नसरीम तक/ होना पड़ा भूमिगत/ आखिर क्यों?/ आखिर कब तक?
उनकी कविताये शुद्ध हिंदी में है तो उर्दू के प्रयोग के साथ बानी गजलों और नज्मों की नफासत और रवानगी देखते बनती है .. कुल मिला कर इन रचनाओं में जहां व्यक्तिगत कोमल भावनाएं भी हैं वही उनका संवेदनशील मन बड़ी बेबाकी से समाज की कुरीतियों पर प्रहार करता है ... बड़े सरल और सहज ढंग से अपनी भावनाओं को संप्रेषित करती हुई ये रचनाएं बरबस पाठकों को अपनी ओर खींचती है ... मैं श्रीमती आशापांडे जी से उम्मीद करती हूँ कि आगे भी वो अपने रचना संसार से अनूठी कृतियाँ समाज को दें .. शुभकामनाओं सहित – डॉ नूतन गैरोला
वह अशिक्षा पर वार करती है और चाहती हैं कि साक्षर हों सब – गली गली ढूंढ कर निरक्षर/ मिल कर हम तुम परस्पर/ बनाएँ हर निरक्षर को साक्षर/ जला कर चेतना का इक दीया/ दिखाएँ राह के कंटक प्रस्तर .........
असमानता और छुआछूत पर वह लिखती है – वे सर पर मैला ढोते हैं/ हम मन में मैला ढोते है/ वो हमारा मैला ढोते हैं/ हम उनके प्रति मैला ढोते हैं .... वैसे ही आधुनिक समाज में चली आ रही कुप्रथाओं में कन्या भ्रूण ह्त्या जैसे प्रवृति पर चोट करती उनकी कलम लिखती है--- क़त्ल कन्याओं का यूं न छुप छुप के कीजिये/ जाने अनजाने खुद को ही सजा न दीजिए/ .....
इसी तरह जीवन दर्शन पर गहरे भाव रखती एक छोटी से क्षणिका
न ही बहुत लंबी उम्र
न ही युग युगान्तर
मैं जीवन जीना चाहती हूँ
छोटा किन्तु अर्थ भर|....
आज जिस तरह मानवीय भावनाओं का ह्रास होता जा रहा है उस पर चोट करती अनेक रचनाओं में से एक रचना देखिये
बारूदों की तल्ख़ धूप मैं/ खूं पसीने से गीले लोग/ बिन जुर्म जो काटे सजा/ वो सलीब की कीलें लोग/ कुछ पड़े हैं लाशों जैसे/ कुछ है गिद्ध चीले लोग/ सागर थे जो सूख गए/ बचे रेत के टीले लोग ....... ऐसे ही वे गाँव का आदमी मैं कहती है – था कितना सीधा सादा भोला भाला गाँव का आदमी/ बन गया कैसा अजब का गोला गाला गाँव का आदमी/ जहरीले शहरी साँपों के संगत में पड़ ये पगला/ ऐसा बदला बन गया संपोला गाँव का आदमी
उनकी कविता देश के नौजवानों का आह्वाहन करती है --- नवपीढ़ी तुम देश का संबल बनों/ माहोल कीचड़ का है तो क्या तुम कमल बनों ...............
यहाँ स्त्री विमर्श भी मिलता है – एक स्त्री के जीवन की त्रासदी कन्या भ्रूण हत्या से ले कर विधवा औरत का दर्द, बहन का अपने भाई की तरह अपने जीवन के सपनो को साकार करने के लिए ऊँची उड़ान की ख्वाहिश दिखती है, वह यह भी कहती हैं आखिर कब तक – चाह में अपने अस्तित्व की/ सीता से ले कर/ तस्लीमा नसरीम तक/ होना पड़ा भूमिगत/ आखिर क्यों?/ आखिर कब तक?
उनकी कविताये शुद्ध हिंदी में है तो उर्दू के प्रयोग के साथ बानी गजलों और नज्मों की नफासत और रवानगी देखते बनती है .. कुल मिला कर इन रचनाओं में जहां व्यक्तिगत कोमल भावनाएं भी हैं वही उनका संवेदनशील मन बड़ी बेबाकी से समाज की कुरीतियों पर प्रहार करता है ... बड़े सरल और सहज ढंग से अपनी भावनाओं को संप्रेषित करती हुई ये रचनाएं बरबस पाठकों को अपनी ओर खींचती है ... मैं श्रीमती आशापांडे जी से उम्मीद करती हूँ कि आगे भी वो अपने रचना संसार से अनूठी कृतियाँ समाज को दें .. शुभकामनाओं सहित – डॉ नूतन गैरोला
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